Natasha

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राजा की रानी

अजय शायद अपने गुरुदेव के हुक्के पर ही तमाखू भर के ला रहा था, सुनन्दा ने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा, “लड़की कैसे हूँ! जिसके इतने बड़े-बड़े लड़के हों, उसकी उमर कहीं कम होती होगी!” यह कहकर वह हँसने लगी। खासी स्वच्छन्द सरल हँसी थी उसकी। अजय के यह पूछने पर कि मैं खुद ही चूल्हे से आग ले लूँ या नहीं, उसने परिहास करते हुए कहा, “मालूम नहीं किस जात के लड़के हो तुम बेटा, जरूरत नहीं तुम्हें चूल्हा छूने की।” असल में बात यह थी कि लड़के के लिए जलता अंगारा चूल्हे में से निकालना कठिन था, इससे उसने खुद ही जाकर ऑंच उठाके चिलमपर रख दी, और चेहरे पर वैसी ही हँसी लिए हुए वह फिर अपनी जगह पर आकर बैठ गयी। साधारण ग्राम्य-रमणी-सुलभ हँसी-मसखरी से लेकर बातचीत और आचरण तक कहीं किसी बात में उसकी कोई विशेषता नहीं पकड़ी जा सकती, फिर भी, इतने ही अरसे जो मामूली-सा परिचय मुझे मिला है वह कितना असाधारण है! इस असाधारणता का हेतु दूसरे ही क्षण में हम दोनों के समक्ष परिस्फुट हो उठा। अजय ने मेरे हाथ में हुक्का देते हुए कहा, “माताजी, तो अब उसे उठाकर रख दूँ?”

सुनन्दा के इशारे से अनुमति देने पर उसकी दृष्टि अनुसरण करके देखा कि पास ही एक लकड़ी के पीढ़े पर बड़ी भारी एक मोटी पोथी इधर-इधर बिखरी पड़ी है। अब तक किसी ने भी उसे नहीं देखा था। अजय ने उसके पन्ने सँभालते हुए क्षुण्ण स्वर से कहा, “माताजी, 'उत्पत्ति-प्रकरण' तो आज भी समाप्त नहीं हुआ, न जाने कब तक होगा! अब पूरा नहीं होने का।”

राजलक्ष्मी ने पूछा, “वह कौन-सी पोथी है, अजय?”

“योगवासिष्ठ।”

“तुम्हारी माँ मूड़ी भून रही थी और तुम सुना रहे थे?”

“नहीं, मैं माताजी से पढ़ता हूँ।”

अजय के इस सरल और संक्षिप्त उत्तर से सुनन्दा सहसा मानो लज्जा से सुर्ख हो उठी, झटपट बोल उठी, “पढ़ाने लायक विद्या तो इसकी माँ के पास खाक-धूल भी नहीं है। नहीं जीजी, दोपहर को अकेली घर का काम करती हूँ, वे तो अक्सर रहते नहीं, ये लड़के पुस्तक लेकर क्या-क्या बकते चले जाते हैं, उसका तीन-चौथाई तो मैं सुन ही नहीं पाती। इसको क्या है, जो मन में आया सो कह दिया।”

अजय ने अपने 'योगवासिष्ठ' को लेकर प्रस्थान किया, और राजलक्ष्मी गम्भीर मुँह बनाए स्थिर होकर बैठी रही। कुछ ही क्षण बाद सहसा एक गहरी साँस लेकर बोली, “आसपास ही कहीं मेरा घर होता तो मैं भी तुम्हारी चेली हो जाती, बहिन। एक तो कुछ जानती ही नहीं, उस पर आह्निक-पूजा के शब्दों को भी ठीक तौर से बोल सकती; सो भी नहीं।”

मन्त्रोच्चारण के सम्बन्ध में उसका संदिग्ध मानसिक खेद मैंने बहुत बार सुना है। इसका मुझे अभ्यास हो गया था। परन्तु सुनन्दा ने पहले-पहल सुनकर भी कुछ नहीं कहा। वह सिर्फ जरा-सा मुसकराकर रह गयी। मालूम नहीं, उसने क्या समझा। शायद सोचा कि जिसका तात्पर्य नहीं समझती, प्रयोग नहीं जानती, उसे सिर्फ अर्थहीन पाठ-मात्र की शुद्धता पर इतनी दृष्टि क्यों? हो सकता है कि यह उसके लिए भी कोई नयी बात न हो, अपने यहाँ के साधारण हिन्दू घराने की स्त्रियों के मुँह से ऐसी सकरुण, लोभ और मोह की बातें उसने बहुत बार सुनी हैं- इसका उत्तर देना या प्रतिवाद करना भी वह आवश्यक नहीं समझती। अथवा यह सब कुछ भी न हो। सिर्फ स्वाभाविक विनय-वश ही मौन रही हो। फिर भी इतना तो बिना खयाल किये रहा ही न गया कि उसने अगर आज अपने इस अपरिचित अतिथि को निहायत ही साधारण औरतों के समान छोटा करके देखा हो, तो फिर एक दिन उसे अत्यन्त अनुताप के साथ अपना मत बदलने की जरूरत पड़ेगी।

राजलक्ष्मी ने पलक मारते ही अपने को सँभाल लिया। मैं जानता हूँ कि कोई मुँह खोलता है तो वह उसके मन की बात जान जाती है। फिर वह मन्त्र-तन्त्र के किनारे होकर भी नहीं निकली। और थोड़ी देर बाद ही उसने खालिस घर-गृहस्थी की और घरेलू बातें शुरू कर दीं। उन दोनों के मृदु कण्ठ की सम्पूर्ण आलोचना न तो मेरे कानों में ही गयी, और न मैंने उधर कान लगाने की कोशिश ही की बल्कि मैं तो तर्कालंकार के हुक्के में अजयदत्त की सूखी और कठोर तमाखू को खतम करने में ही जी-जान से जुट गया।

दोनों रमणियाँ मिलकर अस्पष्ट मृदु भाव से संसार-यात्रा के विषय में किस जटिल तत्व का समाधान करने लगीं, सो वे ही जानें, किन्तु उनके पास हुक्का हाथ में लिये बैठे-बैठे मुझे मालूम हुआ कि आज सहसा एक कठिन प्रश्न का उत्तर मिल गया। हमारे विरुद्ध एक भद्दी शिकायत है कि स्त्रियों को हमने हीन बना रक्खा है। यह कठिन काम हमने किस तरह किया है, और कहाँ इसका प्रतिकार है, इस बात पर मैंने अनेक बार विचार करने की कोशिश की है, परन्तु, आज सुनन्दा को यदि ठीक इस तरह अपनी ऑंखों न देखता तो शायद संशय हमेशा के लिए बना ही रह जाता। मैंने देश और विदेश में तरह-तरह की स्त्री-स्वाधीनता देखी है। उसका जो नमूना बर्मा मुल्क में पैर रखते ही देखा था, वह कभी भूलने की चीज नहीं। तीन-चारेक बर्मी सुन्दरियों को जब मैंने राजपथ पर खड़े-खड़े धौरे-दुपहर एक हट्टे-कट्टे जवान मर्द को ईख के टुकड़ों से पीटते हुए देखा था तब मैं उसी दम मारे गुदगुदी के रोमांचित होकर पसीने से तर-ब-तर हो गया था। अभया ने मुग्ध दृष्टि से निरीक्षण करते हुए कहा था, 'श्रीकान्त बाबू, हमारी बंगाली स्त्रियाँ अगर इसी तरह...'

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